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ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 17


[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्रावरुण। छन्द-गायत्री।]



१६८.इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृळात ईदृशे ॥१॥

हम इन्द्र और वरुण दोनो प्रतापी देवो से अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। वे दोनो हम पर इस प्रकार अनुकम्पा करें, जिससे कि हम सुखी रहें॥१॥
१६९.गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः । धर्तारा चर्षणीनाम् ॥२॥

हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! आप दोनो मनुष्यो के सम्राट, धारक एवं पोषक हैं। हम जैसे ब्राह्मणो के आवाहन पर सुरक्षा ले लिये आप निश्चय ही आने को उद्यत रहते हैं॥२॥
१७०.अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । ता वां नेदिष्ठमीमहे॥३॥
हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! हमारी कामनाओ के अनुरूप धन देकर हमें संतुष्ट करें। आप दोनो के समीप पहुचँकर हम प्रार्थना करते हैं॥३॥
१७१.युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदाव्नाम् ॥४॥
हमारे कर्म संगठित हो, हमारी सद्‍बुद्धीयाँ संगठित हो, हम अग्रगण्य होकर दान करने वाले बनें॥४॥
१७२.इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥५॥
इन्द्रदेव सहस्त्रो दाताओ मे सर्वश्रेष्ठ है और् वरुणदेव सहस्त्रो प्रशंसनीय देवो मे सर्वश्रेष्ठ हैं॥५॥
१७३.तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम्॥६॥
आपके द्वारा सुरक्षित धन को प्राप्त कर हम उसका श्रेष्ठतम उपयोग करें। वह धन हमे विपुल मात्रा मे प्राप्त हो॥‍६॥
१७४.इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्सु जिग्युषस्कृतम्॥७॥

हे इन्द्रावरुण देवो! विविध प्रकार के धन की कामना से हम आपका आवाहन करते है। आप हमे उत्तम विजय प्राप्त कराएँ॥७॥
१७५.इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा । अस्मभ्यं शर्म यच्छतम्॥८॥
हे इन्द्रावरुण देवो! हमारी बुद्धियाँ सम्यक् रूप से आपकी सेवा करने की इच्छा करती है, अतः हमे शीघ्र ही निश्‍चयपूर्वक सुख प्रदान करें॥८॥
१७६.प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे । यामृधाथे सधस्तुतिम्॥९॥

हे इन्द्रावरुण देवो! जिन उत्तम स्तुतियों के लिये हम आप दोनो का आवाहन करते हैं एवं जिन स्तुतियो को साथ साथ प्राप्त करके आप दोनो पुष्ट होते हैं, वे स्तुतियाँ आपको प्राप्त हों॥९॥

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