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ऋग्वेद मण्डल 1सूक्त 6

सूक्त 6


51. युञ्जन्ति बरध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः |रोचन्तेरोचना दिवि ||
इन्द्रदेव द्युलोक में आदित्य रूप में, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप में, अंतरिक्ष में सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप में उपस्थित हैं.उन्हें उक्त तीनो लोकों के प्राणी अपने कार्यों में देवत्वरूप में सम्बन्ध मानते हैं. द्युलोक में प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह आदि इन्द्रदेव के ही स्वरूपांश हैं. अर्थात तीनो लोकों की प्रकाशमयी-प्राणमयी शक्तियों के वे ही एकमात्र संगठक हैं.

52. युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे |शोणा धर्ष्णू नर्वाहसा ||
इन्द्रदेव के रथ में दोनों ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यों को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित रहते हैं.

53. केतुं कर्ण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे |समुषद्भिरजायथाः ||
हे मनुष्यों ! तुम रात्री में निद्र्भिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर, प्रातः पुनः सचेत एवं सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो. प्रतिदिन जैसे जन्म लेते हो.

54. आदह सवधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे |दधाना नामयज्ञियम ||
यज्ञीय नाम वाले,धारण करने में समर्थ मरुत वास्तव में अन्न की वृद्धि की कामना से बार-बार गर्भ को प्राप्त होते हैं. (यज्ञ में वायुभूत पदार्थ मेघ आदि के गर्भ में स्थापित होकर उर्वरता को बढ़ाते हैं.)

55. वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः |अविन्द उस्रिया अनु ||
हे इन्द्रदेव ! सुदृढ़ किलेबंदी को ध्वस्त करने में समर्थ, तेजस्वी मरुद्गणों के सहयोग से आपने गुफा में अवरुद्ध गौंवों (किरणों) को खोजकर प्राप्त किया.

56. देवयन्तो यथा मतिमछा विदद्वसुं गिरः |महामनूषत शरुतम ||
देवत्व प्राप्ति की कामना वाले ज्ञानी ऋत्विज, महान यशस्वी, एश्वर्यवान वीर मरुद्गणों की बुद्धिपूर्वक स्तुति करते हैं.

57. इन्द्रेण सं हि दर्क्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा |मन्दू समानवर्चसा ||
सदा प्रसन्न रहने वाले, समान तेज वाले मरूदगण निर्भय रहने वाले इन्द्रदेव के साथ अच्छे लगते हैं.

58. अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति |गणैरिन्द्रस्य काम्यैः ||
इस यज्ञ में निर्दोष, दीप्तिमान, इष्टप्रदायक, सामर्थ्यवान मरुद्गणों के साथी इन्द्रदेव के सामर्थ्य की पूजा की जाती है.

59. अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि |समस्मिन्न्र्ञ्जते गिरः ||
हे सर्वत्र गमनशील मरुद्गणों ! आप अंतरिक्ष से, आकाश से अथवा प्रकाशवान द्धुलोक से यहाँ पर आयें, क्योंकि इस यज्ञ में हमारी वाणियाँ आपकी स्तुति कर रही हैं.

60. इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि |इन्द्रं महोवा रजसः ||
इस प्रथ्वी लोक, अंतरिक्ष लोक अथवा द्धुलोक से- कहीं से भी प्रभूत धन प्राप्त कराने के लिए, हम इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं.

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