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ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 5

सूक्त 5


41. आ तवेता नि षीदतेन्द्रमभि पर गायत |सखाय सतोमवाहसः ||
हे याज्ञिक मित्रों ! इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करने हेतु शीघ्र आकर बैठो और हर प्रकार से उनकी स्तुति करो.

42. पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम |इन्द्रं सोमे सचा सुते ||
(हे याज्ञिक मित्रों ! सोम के अभिषुत होने पर) एकत्रित होकर संयुक्तरूप से सोमयज्ञ में शत्रुओं को पराजित करने वाले एश्वर्य के स्वामी इन्द्रदेव की अभ्यर्थना करो.

43. स घा नो योग आ भुवत स राये स पुरन्ध्याम |गमद वाजेभिरा स नः ||
वे इन्द्रदेव हमारे पुरुषार्थ को प्रखर बनाने में सहायक हो, धन-ध्यान्य से हमें परिपूर्ण करें तथा ज्ञान प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए पोषक अन्न सहित हमारे निकट आवें.

44. यस्य संस्थे न वर्ण्वते हरी समत्सु शत्रवः |तस्मा इन्द्राय गायत ||
हे याजकों ! संग्राम में जिनके अश्वों से युक्त रथों के सम्मुख शत्रु टिक नहीं सके, उन इन्द्रदेव के गुणों का आप गान करें.

45. सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये |सोमासो दध्याशिरः ||
यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले इन्द्रदेव के निमित प्राप्त हो.

46. तवं सुतस्य पीतये सद्यो वर्द्धो अजायथाः |इन्द्र जयैष्ठ्याय सुक्रतो ||
हे उत्तम कर्म करने वाले इन्द्रदेव ! आप सोमरस पिने के लिए देवताओं में सर्वश्रेष्ठ होने के लिए तत्काल वृद्ध रूप हो जातें हैं.

47. आ तवा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः |शं ते सन्तु परचेतसे ||
हे इन्द्रदेव ! तीनों सवनो में रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक समृद्ध करें.

48. तवां सतोमा अवीव्र्धन तवामुक्था शतक्रतो |तवां वर्धन्तु नो गिरः ||
हे सैंकड़ो यज्ञ करने वाले इन्द्रदेव ! स्तोत्र आपकी वृद्धि करें. यह उक्त (स्त्रोत) वचन और हमारी वाणी आपकी महता बढाएं.

49. अक्षितोतिः सनेदिमं वाजमिन्द्रः सहस्रिणम |यस्मिन विश्वानि पौंस्या ||
रक्षणीय की सदा रक्षा करने वाले इन्द्रदेव बल-पराक्रम प्रदान करने वाले विविध रूपों में विद्यमान सोम रूप अन्न का सेवन करें.

50. मा नो मर्ता अभि दरुहन तनूनामिन्द्र गिर्वणः |ईशानो यवया वधम ||
हे स्तुत्य इन्द्रदेव ! हमारे शरीर को कोई भी शत्रु क्षति न पंहुचाये. हमें कोई भी हिंसित न करें, आप हमारे संरक्षक रहें.

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