Skip to main content

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 4

सूक्त 4

31. सुरूपक्र्त्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे |जुहूमसि दयवि-दयवि ||
(गो दोहन करने वाले के द्वारा ) प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिए सोंदर्यपूर्ण यज्ञकर्म संपन्न करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते है.

32. उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब |गोदा इद रेवतोमदः ||
सोमरस का पान करने वाले हे इन्द्रदेव ! आप सोम ग्रहण करने हेतु हमारे सवन यज्ञों में पधारकर, सोमरस पिने के बाद प्रसन्न होकर याजकों को यश,वैभव और गौएँ प्रदान करें.

33. अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम |मा नो अति खय आगहि ||
सोमपान कर लेने के अनन्तर हे इन्द्रदेव ! हम आपके अत्यंत समीपवर्ती श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरुषों की उपस्थिति में रहकर आप के विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त करें. आप भी हमारे अतिरिक्त अन्य किसी के समक्ष अपना स्वरुप प्रकट न करें (अर्थात अपने विषय में न बताएं).

34. परेहि विग्रमस्त्र्तमिन्द्रं पर्छा विपश्चितम |यस्ते सखिभ्य आ वरम ||
हे ज्ञानवानों ! आप उन विशिष्ट बुद्धि वाले, अपराजेय इन्द्रदेव के पास जाकर मित्रों बंधुओं के लिए धन एश्वर्य के निमित प्रार्थना करें.

35. उत बरुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत |दधाना इन्द्र इद दुवः ||
इन्द्रदेव की उपासना करने वाले उपासक उन (इन्द्रदेव ) के निंदकों को यहाँ से अन्यत्र निकल जाने को कहें, ताकि वे यहाँ से दूर हो जाएँ.

36. उत नः सुभगानरिर्वोचेयुर्दस्म कर्ष्टयः |सयामेदिन्द्रस्य शर्मणि ||
हे इन्द्रदेव ! हम आपके अनुग्रह से समस्त वैभव प्राप्त करें, जिससे देखने वाले सभी शत्रु और मित्र हमें सौभाग्यशाली समझें.
37. एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नर्मादनम |पतयन मन्दयत्सखम ||
हे याजकों ! यज्ञ को श्रीसंपन्न बनाने वाले,प्रशन्नता प्रदान करने वाले, मित्रों को आनंद देने वाले इस सोमरस को शीघ्रगामी इन्द्रदेव के लिए भरें(अर्पित करें).

38. अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वर्त्राणामभवः |परावो वाजेषु वाजिनम ||
हे सेंकडों यज्ञ संपन्न करने वाले इन्द्रदेव ! इस सोमरस को पीकर आप वृत्र-प्रमुख शत्रुओं के संहारक सिद्ध हुए हैं, अतः आप संग्राम-भूमि में वीर योद्धाओं की रक्षा करें.

39. तं तवा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो |धनानामिन्द्र सातये ||
हे सतकर्मा इन्द्रदेव ! युद्धों में बल प्रदान करने वाले आपको हम धनों की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ हविष्यान अर्पित करते हैं.

40. यो रायो.अवनिर्महान सुपारः सुन्वतः सखा |तस्मा इन्द्राय गायत ||
हे याजकों ! आप उन इन्द्रदेव के लिए स्त्रोतों का गान करें,जो धनों के महान रक्षक, दुखों को दूर करने वाले और याज़िकों के मित्रवत भाव रखने वाले हैं.

Comments

Popular posts from this blog

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 1

. सूक्त 1 1. अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं रत्वीजम | होतारं रत्नधातमम || * हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं.जो  यज्ञ  के पुरोहित,देवता,  ऋत्विज  ,  होता  और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाले हैं. 2. अग्निः पूर्वेभिर्र्षिभिरीड्यो नूतनैरुत | स देवानेह वक्षति || * जो अग्निदेव पूर्वकालीन  ऋषियों  द्वारा प्रशंसित है. जो आधुनिक काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य है, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें. 3. अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवे-दिवे | यशसं वीरवत्तमम || * ये अग्निदेव मनुष्यों को प्रतिदिन  विवर्धमान  , धन, यश , एवं पुत्र-पौत्रादि वीर पुरुष प्रदान करने वाले हैं. 4. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि | स इद्देवेषु गछति || * हे अग्निदेव ! आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं. आप जिस  अध्वर  को सभी ओर से आवृत किये हुए हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहंचता है . 5. अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः | देवो देवेभिरा गमत || * हे अग्निदेव ! आप हावी-प्रदाता, ज्ञान ...

Introduction About ऋग्वेद

ऋग्वेद                                                                                      ऋग्वेद की १९ वी शताब्दी की पाण्डुलिपि                                                                                                                                                            ग्रंथ का परिमाण    श्लोक संख्या(लम्बाई)    १०५८० ऋचाएँ       ...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 12

[ऋषि-मेधातिथि काण्व । देवता -अग्नि, छटवी ऋचा के प्रथम पाद के देवता निर्मथ्य अग्नि और आहवनीय अग्नि। छन्द-गायत्री।] १११.अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥ हे सर्वज्ञाता अग्निदेव! आप यज्ञ के विधाता है, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि व्यवस्था के स्वामी है। ऐसे समर्थ आपको हम देव दूत रूप मे स्वीकार करते है॥१॥ ११२.अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥२॥ प्रजापालक, देवो तक हवि पहुंचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! हम याजक गण हवनीय मंत्रो से आपको सदा बुलाते है॥२॥ ११३.अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः॥३॥ हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुये है। आस्तीर्ण (बिछे हुये) कुशाओ पर बैठे हुये यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओ को इस यज्ञ मे बुलायें॥३॥ ११४.ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि॥४॥ हे अग्निदेव! आप हवि की कामना करने वाले देवो को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के ...