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Showing posts from March, 2018

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 18

[ऋषि-मेधातिथी काण्व। देवता- १-३ ब्रह्मणस्पति, ४ इन्द्र,ब्रह्मणस्पति,सोम ५-ब्रह्मणस्पति,दक्षिणा, ६-८ सदसस्पति,९,नराशंस। छन्द -गायत्री] सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१॥ हे सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति ब्रह्मणस्पति देव! सोम का सेवन करने वाले यजमान को आप उशिज् के पुत्र कक्षीवान की तरह श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त करें॥१॥ यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥२॥ ऐश्वर्यवान, रोगो का नाश करने वाले,धन प्रदाता और् पुष्टिवर्धक तथा जो शीघ्रफलदायक है, वे ब्रह्मणस्पति देव हम पर कृपा करें॥२॥ मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्मर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३॥ हे ब्रह्मणस्पति देव! यज्ञ न करनेवाले तथा अनिष्ट चिन्तन करनेवाले दुष्ट शत्रु का हिंसक, दुष्ट प्रभाव हम पर न पड़े। आप हमारी रक्षा करें॥३॥ स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः । सोमो हिनोति मर्त्यम् ॥४॥ जिस मनुष्य को इन्द्रदेव,ब्रह्मणस्पतिदेव और सोमदेव प्रेरित करते है, वह वीर कभी नष्ट नही होता॥४॥ [इन्द्र से संगठन की, ब्रह्मणस्पतिदेव से श्रेष्ठ मार्गदर्शन की एव सोम से प...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 17

[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्रावरुण। छन्द-गायत्री।] १६८.इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृळात ईदृशे ॥१॥ हम इन्द्र और वरुण दोनो प्रतापी देवो से अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। वे दोनो हम पर इस प्रकार अनुकम्पा करें, जिससे कि हम सुखी रहें॥१॥ १६९.गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः । धर्तारा चर्षणीनाम् ॥२॥ हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! आप दोनो मनुष्यो के सम्राट, धारक एवं पोषक हैं। हम जैसे ब्राह्मणो के आवाहन पर सुरक्षा ले लिये आप निश्चय ही आने को उद्यत रहते हैं॥२॥ १७०.अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । ता वां नेदिष्ठमीमहे॥३॥ हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! हमारी कामनाओ के अनुरूप धन देकर हमें संतुष्ट करें। आप दोनो के समीप पहुचँकर हम प्रार्थना करते हैं॥३॥ १७१.युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदाव्नाम् ॥४॥ हमारे कर्म संगठित हो, हमारी सद्‍बुद्धीयाँ संगठित हो, हम अग्रगण्य होकर दान करने वाले बनें॥४॥ १७२.इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥५॥ इन्द्रदेव सहस्त्रो दाताओ मे सर्वश्रेष्ठ है और् वरुणदेव सहस्त्रो प्रशंसनीय देवो मे सर्वश्रेष्ठ...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 16

[ऋषि- मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्र।छन्द-गायत्री] १५९.आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये । इन्द्र त्वा सूरचक्षसः ॥१॥ हे बलवान इन्द्रदेव! आपके तेजस्वी घोड़े सोमरस पीने के लिये आपको यज्ञस्थल पर लाएँ तथा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त ऋत्विज् मन्त्रो द्वारा आपकी स्तुति करें॥१॥ १६०.इमा धाना घृतस्नुवो हरी इहोप वक्षतः । इन्द्रं सुखतमे रथे ॥२॥ अत्यन्त सुखकारी रथ मे नियोजित इन्द्रदेव के दोनो हरि (घोड़े) उन्हे (इन्द्रदेव को) घृत से स्निग्ध हवि रूप धाना(भुने हुये जौ) ग्रहण करने के लिये यहाँ ले आएँ॥२॥ १६१.इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे । इन्द्रं सोमस्य पीतये ॥३॥ हम प्रातःकाल यज्ञ प्रारम्भ करते समय मध्याह्नकालीन सोमयाग प्रारम्भ होने पर तथा सांयकाल यज्ञ की समाप्ति पर भी सोमरस पीने के निमित्त इन्द्रदेव का आवाहन करते है॥३॥ १६२.उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः । सुते हि त्वा हवामहे ॥४॥ हे इन्द्रदेव! आप अपने केसर युक्त अश्‍वो से सोम के अभिषव स्थान के पास् आएँ। सोम के अभिषुत होने पर हम आपका आवाहन करते है॥४॥ १६३.सेमं न स्तोममा गह्युपेदं सवनं ...