[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता विश्वेदेवता। छन्द-गायत्री।] १३५.ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये । देवेभिर्याहि यक्षि च ॥१॥ हे अग्निदेव! आप समस्त देवो के साथ इस यज्ञ मे सोम पीने के लिये आएँ एव हमारी परिचर्या उअर् स्तुतियो को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥ १३६. आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ॥२॥ हे मेधावी अग्निदेव! कण्व ऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यो की प्रशंसा करते हौ। अतः आप देवो के साथ यहाँ पधारे ॥२॥ १३७.इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् । आदित्यान्मारुतं गणम् ॥३॥ यज्ञशाला मे हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति,मित्र, अग्नि, पूषा,भग, आदित्यगण और मरुद्गण आदि देवो का आवाहन करते है॥३॥ १३८.प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः । द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ॥४॥ कूटपीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढा़ने वाला यह मधुर सोमरस अग्निदेव के लिये चमसादि पात्रो मे भरा हुआ है॥४॥ १३९.ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥५॥ कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा की कामना से, कुश आसन बिछाकर हविष्यान्न व अलं...