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Showing posts from December, 2017

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 14

[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता विश्वेदेवता। छन्द-गायत्री।] १३५.ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये । देवेभिर्याहि यक्षि च ॥१॥ हे अग्निदेव! आप समस्त देवो के साथ इस यज्ञ मे सोम पीने के लिये आएँ एव हमारी परिचर्या उअर् स्तुतियो को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥ १३६. आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ॥२॥ हे मेधावी अग्निदेव! कण्व ऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यो की प्रशंसा करते हौ। अतः आप देवो के साथ यहाँ पधारे ॥२॥ १३७.इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् । आदित्यान्मारुतं गणम् ॥३॥ यज्ञशाला मे हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति,मित्र, अग्नि, पूषा,भग, आदित्यगण और मरुद्‍गण आदि देवो का आवाहन करते है॥३॥ १३८.प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः । द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ॥४॥ कूटपीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढा़ने वाला यह मधुर सोमरस अग्निदेव के लिये चमसादि पात्रो मे भरा हुआ है॥४॥ १३९.ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥५॥ कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा की कामना से, कुश आसन बिछाकर हविष्यान्न व अलं...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 13

[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता १-इध्म अथवा समिद्ध अग्नि, २-तनूनपात्, ३-नराशंस, ४-इळा, ५-बर्हि, ६-दिव्यद्वार्, ७-उषासानक्ता, ८ दिव्यहोता प्रचेतस, ९- तीन देवियाँ- सरस्वती, इळा , भारती, १०-त्वष्टा, ११ वनस्पति, १२ स्वाहाकृति । छन्द-गायत्री।] १२३.सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते । होतः पावक यक्षि च॥१॥ पवित्रकर्ता यज्ञ सम्पादन कर्ता हे अग्निदेव। आप अच्छी तरह प्रज्वलित होकर यजमान के कल्याण के लिये देवताओ का आवाहन करें और उनको लक्ष्य करके यज्ञ सम्पन्न करे अर्थात देवो के पोषण के लिये हविष्यान्न ग्रहण करें ॥१॥ १२४.मधुमन्तं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु नः कवे । अद्या कृणुहि वीतये॥२॥ उर्ध्वगामी, मेधावी हे अग्निदेव ! हमारी रक्षा के लिये प्राणवर्धक-मधुर् हवियो को देवो के निमित्त प्राप्त करें और उन तक पहुँचायेँ ॥२॥ १२५.नराशंसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वं हविष्कृतम्॥३॥ हम इस यज्ञ मे देवताओ के प्रिय और् आह्लादक (मदुजिह्ल) अग्निदेव का आवाहन करते है। वह हमारी हवियो को देवताओं तक पहुँचाने वाले है, अस्तु , वे स्तुत्य हैं॥३॥ १२६.अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह । असि होता मनुर्हितः॥४॥ म...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 12

[ऋषि-मेधातिथि काण्व । देवता -अग्नि, छटवी ऋचा के प्रथम पाद के देवता निर्मथ्य अग्नि और आहवनीय अग्नि। छन्द-गायत्री।] १११.अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥ हे सर्वज्ञाता अग्निदेव! आप यज्ञ के विधाता है, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि व्यवस्था के स्वामी है। ऐसे समर्थ आपको हम देव दूत रूप मे स्वीकार करते है॥१॥ ११२.अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥२॥ प्रजापालक, देवो तक हवि पहुंचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! हम याजक गण हवनीय मंत्रो से आपको सदा बुलाते है॥२॥ ११३.अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः॥३॥ हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुये है। आस्तीर्ण (बिछे हुये) कुशाओ पर बैठे हुये यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओ को इस यज्ञ मे बुलायें॥३॥ ११४.ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि॥४॥ हे अग्निदेव! आप हवि की कामना करने वाले देवो को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के ...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 11

[ऋषि-जेतामाधुच्छन्दस । देवता - इन्द्र। छन्द- अनुष्टुप्।] १०३. इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः। रथीतमं रथीनां वाजानां सतपर्ति पतिम्॥१॥ समुद्र के तुल्य व्यापक, सब रथियो मे महानतम, अन्नो के स्वामी और सत्प्रवृत्तियो के पालक इन्द्रदेव को समस्त स्तुतियां अभिवृद्धि प्रदान करती हैं ॥१॥ १०४. सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते। त्वामभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम्॥२॥ हे बलरक्षक इन्द्रदेव! आपकी मित्रता से हम बलशाली होकर किसी से न डरें। हे अपराजेय - विजयी इन्द्रदेव! हम साधक गण आपको प्रणाम करते हैं ॥२॥ १०५. पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्तन्त्यूतयः। यदी वाजस्य गोमतः स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥३॥ देवराज इन्द्र की दानशिलता सनातन है। ऐसी स्थिति मे आज के यजमान भी स्तोताओ को गवादि सहित अन्न दान करते है तो इन्द्रदेव द्वारा की गई सुरक्षा अक्षुण्ण रहती है ॥३॥ १०६. पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता वज्री पुरुष्टुतः॥४॥ शत्रु के नगरो को विनष्ट करने वाले हे इन्द्रदेव युवा ज्ञाता, अतिशक्तिशाली, शुभ कार्यो के आश्रयदाता तथा सर्वाधिक कीर्ति-युक्त ...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 10

[ऋषि- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता-इन्द्र । छन्द- अनुष्टुप्] ९१.गायन्ति त्वा गायत्रिणो ऽर्चन्त्यर्कमर्किण: । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥१॥ हे शतक्रतो (सौ यज्ञ या श्रेष्ठ कर्म करने वाले) इन्द्रदेव ।उद्‍गातागण आपका आवाहन करते है। स्तोतागण पूज्य इन्द्रदेव का मंत्रोच्चारण द्वारा आदर करते है। बाँस के ऊपर कला प्रदर्शन करने वाले नट के समान ब्रम्हा नामक ऋत्विज श्रेष्ठ स्तुतियो द्वारा इन्द्रदेव को प्रोत्साहित करते हैं॥१॥ ९२. यत्सानो: सानुमारुहद् भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥२॥ जब यजमान सोमवल्ली , समिधादि के निमित्त एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर जाते है और् यजन कर्म करते है, तब उनके मनोरथ को जानने वाले इष्टप्रदायक इन्द्रदेव यज्ञ मे जाने को उद्यत होते है॥२॥ ९३. युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुअपश्रुतिं चर ॥३॥ हे सोमरस ग्रहिता इन्द्रदेव। आप लम्बे केशयुक्त,शक्तिमान, गन्तव्य तक ले जाने वाले दोनो घोड़ो को रथ मे नियोजित करें। तपश्चात् सोमपान से तृप्त होकर हमारे द्वारा की गयी प्रार्थनायेँ सुने ॥...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 9

[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।] ८१. इन्द्रेहि ,मत्स्यन्धसो विश्वेभि: सोमपर्वभि:। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥१॥ हे इन्द्रदेव! सोमरूपी अन्नो से आप प्रफुल्लित होते है, अत: अपनी शक्ति से दुर्दान्त शत्रुओ पर विजय श्री वरण करने की क्षमता प्राप्त करने हेतु आप (यज्ञशाला मे) पधारें ॥१॥ ८२. एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने । चक्रिं विश्वानि चक्रये॥२॥ (हे याजको !) प्रसन्नता देने वाले सोमरस को निचोड़कर तैयार् करो तथा सम्पूरण कार्यो के कर्ता इन्द्र देव के सामर्थ्य बढ़ाने वाले इस सोम को अर्पित करो॥२॥ ८३. मतस्वा सुशिप्र मन्दिभि: स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा॥३॥ हे उत्तम शस्त्रो से सुसज्जित (अथवा शोभन नासिका वाले), इन्द्रदेव ! हमारे इन यज्ञो मे आकर प्रफुल्लता प्रदान करने वाले स्तोत्रो से आप आनन्दित हो ॥३॥ ८४.असृग्रमिन्द्र ते गिर: प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम्॥४॥ हे इन्द्रदेव । आपकी स्तुति के लिये हमने स्तोत्रो की रचना की है। हे बलशाली और पालनकर्ता इन्द्रदेव ! इन स्तुतियो द्वारा की गई प्रार्थना को आप स्वीकार करें ॥४॥ ८५.सं चोदय चित्...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 8

मण्डल 1- सूक्त 8 71. एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम | वर्षिष्ठमूतये भर ||  *हे इन्द्रदेव ! आप हमारे जीवन संरक्षण के लिए तथा शत्रुओं को पराभूत करने के निमित हमें एश्वर्य से पूर्ण करें. 72. नि येन मुष्टिहत्यया नि वर्त्रा रुणधामहै | तवोतासो नयर्वता ||  *उस एश्वर्य के प्रभाव और आपके द्वारा रक्षित अश्वों के सहयोग से हम मुक्के का प्रहार करके (शक्ति प्रयोग करके ) शत्रुओं को भगा देंगे. 73. इन्द्र तवोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि | जयेम सं युधि सप्र्धः ||  *हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीक्ष्ण वज्रों को धारण कर हम युद्ध में स्पर्धा करने वाले शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें. 74. वयं शूरेभिरस्त्र्भिरिन्द्र तवया युजा वयम | सासह्याम पर्तन्यतः ||  *हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्त्र चालक वीरों के साथ हम अपने शत्रुओं को पराजित करें. 75. महानिन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे | दयौर्नप्रथिना शवः ||  *हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान हैं. वज्रधारी इन्द्रदेव का यश द्धुलोक के समान व्यापक होकर फैलें तथा इनके बल की प्रशंसा चतुर्दिक हों. 76. समोह...

ऋग्वेद मण्डल 1- सूक्त 7

मण्डल 1- सूक्त 7 61. इन्द्रमिद गाथिनो बर्हदिन्द्रमर्केभिरर्किणः |इन्द्रं वाणीरनूषत ||  सामगान के साधकों ने गाये जाने योग्य बृहत्मास की स्तुतियों से देवराज इंद्र को प्रसन्न किया. इसी तरह यागिकों ने भी मंत्रोचारण के द्वारा इन्द्रदेव की प्रार्थना की है.  62. इन्द्र इद धर्योः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा |इन्द्रो वज्रीहिरण्ययः ||  संयुक्त करने की क्षमता वाले, वज्रधारी, स्वर्णमंडित इन्द्रदेव, वचन मात्र के इशारे से जुड़ जाने वाले अश्वों के साथी हैं.  63. इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद दिवि |वि गोभिरद्रिमैरयत ||  इन्द्रदेव ने विश्व को प्रकाशित करने के महान उद्देश्य से सूर्यदेव को उच्चाकाश में स्थापित किया, जिनने अपनी किरणों से पर्वत आदि समस्त विश्व को दर्शनार्थ प्रेरित किया.  64. इन्द्र वाजेषु नो.अव सहस्रप्रधनेषु च |उग्र उग्राभिरूतिभिः ||  हे वीर इन्द्रदेव ! आप सहस्त्रों प्रकार के धन-लाभ वाले छोटे-बड़े संग्रामों में वीरतापूर्वक हमारी रक्षा करें.  65. इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे |युजं वर्त्रेषु वज्रिणम ||  हम छोटे बड़े सभी संग...