सूक्त 6 51. युञ्जन्ति बरध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः |रोचन्तेरोचना दिवि || इन्द्रदेव द्युलोक में आदित्य रूप में, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप में, अंतरिक्ष में सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप में उपस्थित हैं.उन्हें उक्त तीनो लोकों के प्राणी अपने कार्यों में देवत्वरूप में सम्बन्ध मानते हैं. द्युलोक में प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह आदि इन्द्रदेव के ही स्वरूपांश हैं. अर्थात तीनो लोकों की प्रकाशमयी-प्राणमयी शक्तियों के वे ही एकमात्र संगठक हैं. 52. युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे |शोणा धर्ष्णू नर्वाहसा || इन्द्रदेव के रथ में दोनों ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यों को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित रहते हैं. 53. केतुं कर्ण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे |समुषद्भिरजायथाः || हे मनुष्यों ! तुम रात्री में निद्र्भिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर, प्रातः पुनः सचेत एवं सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो. प्रतिदिन जैसे जन्म लेते हो. 54. आदह सवधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे |दधाना नामयज्ञियम || यज्ञीय नाम वाले,धारण करने में समर्थ मरुत वास्तव में अन्न की वृद्धि की कामना से ब...