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Showing posts from November, 2017

ऋग्वेद मण्डल 1सूक्त 6

सूक्त 6 51. युञ्जन्ति बरध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः |रोचन्तेरोचना दिवि || इन्द्रदेव द्युलोक में आदित्य रूप में, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप में, अंतरिक्ष में सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप में उपस्थित हैं.उन्हें उक्त तीनो लोकों के प्राणी अपने कार्यों में देवत्वरूप में सम्बन्ध मानते हैं. द्युलोक में प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह आदि इन्द्रदेव के ही स्वरूपांश हैं. अर्थात तीनो लोकों की प्रकाशमयी-प्राणमयी शक्तियों के वे ही एकमात्र संगठक हैं. 52. युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे |शोणा धर्ष्णू नर्वाहसा || इन्द्रदेव के रथ में दोनों ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यों को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित रहते हैं. 53. केतुं कर्ण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे |समुषद्भिरजायथाः || हे मनुष्यों ! तुम रात्री में निद्र्भिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर, प्रातः पुनः सचेत एवं सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो. प्रतिदिन जैसे जन्म लेते हो. 54. आदह सवधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे |दधाना नामयज्ञियम || यज्ञीय नाम वाले,धारण करने में समर्थ मरुत वास्तव में अन्न की वृद्धि की कामना से ब...

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 5

सूक्त 5 41. आ तवेता नि षीदतेन्द्रमभि पर गायत |सखाय सतोमवाहसः || हे याज्ञिक मित्रों ! इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करने हेतु शीघ्र आकर बैठो और हर प्रकार से उनकी स्तुति करो. 42. पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम |इन्द्रं सोमे सचा सुते || (हे याज्ञिक मित्रों ! सोम के अभिषुत होने पर) एकत्रित होकर संयुक्तरूप से सोमयज्ञ में शत्रुओं को पराजित करने वाले एश्वर्य के स्वामी इन्द्रदेव की अभ्यर्थना करो. 43. स घा नो योग आ भुवत स राये स पुरन्ध्याम |गमद वाजेभिरा स नः || वे इन्द्रदेव हमारे पुरुषार्थ को प्रखर बनाने में सहायक हो, धन-ध्यान्य से हमें परिपूर्ण करें तथा ज्ञान प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए पोषक अन्न सहित हमारे निकट आवें. 44. यस्य संस्थे न वर्ण्वते हरी समत्सु शत्रवः |तस्मा इन्द्राय गायत || हे याजकों ! संग्राम में जिनके अश्वों से युक्त रथों के सम्मुख शत्रु टिक नहीं सके, उन इन्द्रदेव के गुणों का आप गान करें. 45. सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये |सोमासो दध्याशिरः || यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले इन्द्रदेव के निम...

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 4

सूक्त 4 31. सुरूपक्र्त्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे |जुहूमसि दयवि-दयवि || (गो दोहन करने वाले के द्वारा ) प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिए सोंदर्यपूर्ण यज्ञकर्म संपन्न करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते है. 32. उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब |गोदा इद रेवतोमदः || सोमरस का पान करने वाले हे इन्द्रदेव ! आप सोम ग्रहण करने हेतु हमारे सवन यज्ञों में पधारकर, सोमरस पिने के बाद प्रसन्न होकर याजकों को यश,वैभव और गौएँ प्रदान करें. 33. अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम |मा नो अति खय आगहि || सोमपान कर लेने के अनन्तर हे इन्द्रदेव ! हम आपके अत्यंत समीपवर्ती श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरुषों की उपस्थिति में रहकर आप के विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त करें. आप भी हमारे अतिरिक्त अन्य किसी के समक्ष अपना स्वरुप प्रकट न करें (अर्थात अपने विषय में न बताएं). 34. परेहि विग्रमस्त्र्तमिन्द्रं पर्छा विपश्चितम |यस्ते सखिभ्य आ वरम || हे ज्ञानवानों ! आप उन विशिष्ट बुद्धि वाले, अपराजेय इन्द्रदेव के पास जाकर मित्रों बंधुओं के लिए धन एश्वर्य के नि...

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 3

19. अश्विना यज्वरीरिषो दरवत्पाणी शुभस पती |पुरुभुजाचनस्यतम || हे विशालबाहो ! शुभ कर्मपालक, द्रुतगति से कार्य संपन्न करने वाले अश्विनीकुमारों ! हमारे द्वारा समर्पित हविष्यानो से आप भली प्रकार संतुष्ट हों. 20. अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया | धिष्ण्या वनतं गिरः || असंख्य कर्मों को सम्पादित करने वाले, बुद्धिमान हे अश्विनीकुमारों ! आप अपनी उत्तम बुद्धि से हमारी वाणियों (प्रार्थनाओ) को स्वीकार करें. 21. दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वर्क्तबर्हिषः |आ यातंरुद्रवर्तनी || रोगों को विनष्ट करने वाले, सदा सत्य बोलने वाले रुद्रदेव के समान (शत्रु संहारक) प्रवृति वाले, दर्शनीय हे अश्विनीकुमारों ! आप यहाँ आयें और बिछी हुई कुशाओं पर विराजमान होकर प्रस्तुत संस्कारित सोमरस का पान करें. 22. इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे तवायवः |अण्वीभिस्तना पूतासः || हे अद्भुत दीप्तिमान इन्द्रदेव ! अंगुलिओं द्वारा स्त्रवित, श्रेष्ट पवित्रतायुक्त यह सोमरस आपके निमित है. आप आयें और सोमरस का पान करें. 23. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः |उप बरह्माणि वाघतः || हे इन्द्रदेव ! श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा जान...

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 2

सूक्त 2 10 . वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंक्र्ताः | तेषां पाहि शरुधी हवम || हे प्रियदर्शी वायुदेव हमारी प्रार्थना को सुन कर आप यज्ञस्थल पर आयें. आपके निमित सोमरस प्रस्तुत है इसका पान करें. 11 . वाय उक्थेभिर्जरन्ते तवामछा जरितारः | सुतसोमा अहर्विदः || हे वायुदेव ! सोमरस तैयार करके रखने वाले, उसके गुणों को जानने वाले, स्तोतागण स्त्रोतों से आपकी उतम प्रकार से स्तुति करतें हैं. 12 . वायो तव परप्र्ञ्चती धेना जिगाति दाशुषे | उरूची सोमपीतये || हे वायुदेव! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यजमानो की प्रशंसा करती हुई एवं सोमरस का विशेष गुण-गान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान) के पास पंहुचती है. 13. इन्द्रवायू इमे सुता उप परयोभिरा गतम | इन्दवो वामुशन्ति हि || हे इन्द्रदेव ! हे वायुदेव ! यह सोमरस आपके लिए अभिषुत किया (निचोड़ा) गया है. आप अन्नादि पदार्थों के साथ यहाँ पधारें, क्योंकि यह सोमरस आप दोनों की कामना करता है. 14. वायविन्द्रश्च चेतथः सुतानां वाजिनीवसू | तावा यातमुप दरवत || हे वायुदेव ! हे इंद्रदेव ! आप दोनों अन्नादि पधार्थो और धन से ...

ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 1

. सूक्त 1 1. अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं रत्वीजम | होतारं रत्नधातमम || * हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं.जो  यज्ञ  के पुरोहित,देवता,  ऋत्विज  ,  होता  और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाले हैं. 2. अग्निः पूर्वेभिर्र्षिभिरीड्यो नूतनैरुत | स देवानेह वक्षति || * जो अग्निदेव पूर्वकालीन  ऋषियों  द्वारा प्रशंसित है. जो आधुनिक काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य है, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें. 3. अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवे-दिवे | यशसं वीरवत्तमम || * ये अग्निदेव मनुष्यों को प्रतिदिन  विवर्धमान  , धन, यश , एवं पुत्र-पौत्रादि वीर पुरुष प्रदान करने वाले हैं. 4. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि | स इद्देवेषु गछति || * हे अग्निदेव ! आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं. आप जिस  अध्वर  को सभी ओर से आवृत किये हुए हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहंचता है . 5. अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः | देवो देवेभिरा गमत || * हे अग्निदेव ! आप हावी-प्रदाता, ज्ञान ...

Introduction About ऋग्वेद

ऋग्वेद                                                                                      ऋग्वेद की १९ वी शताब्दी की पाण्डुलिपि                                                                                                                                                            ग्रंथ का परिमाण    श्लोक संख्या(लम्बाई)    १०५८० ऋचाएँ       ...

Introduction About Vedas

The corpus of Vedic Sanskrit texts includes: The Samhitas (Sanskrit saṃhitā, "collection"), are collections of metric texts ("mantras"). There are  four  "Vedic" Samhitas: the  Rig-Veda Sama-Veda  Yajur-Veda Atharva-Veda, .................................................................................. Rig-Veda ऋग्वेद   सनातन धर्म  का सबसे आरंभिक स्रोत है। इसमें १०२८ सूक्त हैं, जिनमें  देवताओं  की  स्तुति  की गयी है। इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं, यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार  हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार  की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाऔं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह एक प्रमुख हिन्दू धर्म ग्रंथ है। ऋक् संहिता  में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक...